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"मेरी अभिव्यक्तियों में
सूक्ष्म बिंदु से
अन्तरिक्ष की
अनन्त गहराईयों तक का
सार छुपा है
इनमें
एक बेबस का
अनकहा, अनचाहा
प्यार छुपा है "
-डा0 अनिल चडडा
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अपने-पराए
जब
विश्वास ही
अपने न हुए
तो
अविशवासों का
जिक्र क्या करूँ!
सडांध
अपने बदन का मैल तो
मैं साफ कर लूँगा धो कर
अपने सड़े हुए अंग को भी
अलग कर सकता हूँ
अपने शरीर से
पर मस्तिष्क की सडांध
का क्या करूँ??
न तो धो सकता इसे
और न ही यह
किसी आप्रेशन से
अलग हो सकती है
बस इस सडाँध से
मैं कर सकता हूँ
कोरे पन्ने ही
काले-पीले
जिससे तुम्हे
कुछ तो आभास हो
मन की सडांध का !
भटकन
मैं
पथिक था
एक भटका हुआ!
तुमने भी तो
राह न दिखाई मुझे
बस
मेरी अँगुली पकड़ कर
चल दिये मेरे साथ
और
स्वयँ भी भटक गये
मेरी/अपनी/उसकी/सबकी
उलझाई भूल-भुलैया में
तुम्हारी भटकन देख
मैंने तो
राह पा ली
तुम तो भटकते ही रहे
तुम्हे लगी
भटकन ही प्यारी!
छलता यथार्थ
ऐ मौत
तू कहीं
छलावा तो नहीं
जो
जीवन के
हर पल को
अपनी धुंध से घेरे
डराती रहती है
तुझे तो मैंने
एक यथार्थ की
संज्ञा दी थी
परन्तु
यह कैसा यथार्थ है
जो परत-दर-परत
जीवन के
न जाने किन-किन
रहस्यों में छिपा है
जिसे
न मैं देख पाता हूँ
न भोग पाता हूँ
और
न ही महसूस कर पाता हूँ
न जाने कैसा लगेगा
तुझसे मिल कर
नहीं समझ पाता हूँ
परन्तु फिर भी
तेरा छलता यथार्थ
कभी न भूल पाता हूँ!
कभी न भूल पाता हूँ!!
एक ही सच
मुझे आज फिर
उस गली में जाना पड़ा
जो
मौत के शहर की ओर
ले जाती है
इस गली में घुसते ही
हरेक शख्स
खुली आँखों से
बीता और आने वाला कल
साफ-साफ देख पाता है
जिंदगी को नोचते-खसोटते
अपने अंदर के गिद्धों को
आसानी से पहचान जाता है
और सहम जाता है
उनका नंगा नाच देख कर
सब कुछ
बेमानी सा लगने लग जाता है
जीवन का एक ही सच -
मौत -
मन स्वीकारता है
तथा सैंकड़ों-सैंकड़ों
संकल्प कर डालता है
पर यह क्या!
मौत की गली से बाहर आते ही
जीवन की भूल-भुलैया में
मन फिर उलझ जाता है
गिद्धों का नंगा नाच भी
मन को अति भाता है
और भटक जाता है
टेढ़े-मेढ़े रास्तों में फिर से
भूल जाता है एक ही सच
जो तभी याद आता है
जब आदमी फिर से
उसी रास्ते पर जाता है
जो
मौत के शहर की ओर
ले जाता है!
मौन ही रहने दो
मेरे मौन का कारण
मुझसे मत पूछो
चुप ही रहने दो मुझे
आभार होगा तुम्हारा
मेरे मौन का बोझ ही
यदि तुम सह नहीं पाते
तो मौन टूटने पर
क्या होगा तुम्हारा
समझ नहीं पाता हूँ मैँ!
एक लावा सा बह रहा है
इस मौन रूपी पहाड़ के नीचे
फट गया तो
इसकी तपिश ले डूबेगी
तुम्हे भी
मुझे भी
और निर्दोष उन व्यक्तियों को भी
जिनका इस मौन से
कोई वास्ता ही नहीं
इसलिये
एक एहसान करो
मुझ पर
स्वयँ पर
इस समाज पर
कि चुप ही रहने दो मुझे
यदि समझ पाओ तो
मौन की भाषा ही समझ लो!
अपना-अपना व्रत
मत झ्रंकत करो
मेरे ह्रदय के तार
वर्ना एक और तार
टूट कर
अलापने लगेगा
एक बेसुरा राग!
जो शायद
तुम्हे अच्छा न लगे!!
मत छेड़ो इसके
दर्दीले फफोले
वर्ना
ये फूट कर
फैलाने लगेगें
बदबूदार मवाद!
और तुम
सिकोड़ने लगोगे
नाक-भौं अपनी!!
तुम तो
हवा में तैरते ही
अच्छे लगते हो
मेरी दुनिया में
भला तुम्हारा क्या काम
यहाँ तुम्हे
दुर्गंधित लगेगा
सुगन्धित वातावरण भी!
और हमें
तुम्हारी सुगन्ध से भी
आयेगी दुर्गंध
बनावट की,
झूठ की,
घपलों की,
और
रिश्वतों की!!
तो क्यों नहीं
पड़े रहने देते हमें
अपने ही 'गंदे' नाले में
आओ
हम स्वेच्छा से
समझौता करलें
रहने का
अपने-अपने व्रत में ही