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कुछ तो मैं कह बैठा हूँ, अभी बहुत कुछ बाकी है,

कागज-कलम हैं मीत मेरे, शब्द ही दिल के साकी हैं !

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"मेरी अभिव्यक्तियों में सूक्ष्म बिंदु से अन्तरिक्ष की अनन्त गहराईयों तक का सार छुपा है इनमें एक बेबस का अनकहा, अनचाहा प्यार छुपा है " -डा0 अनिल चडडा All the content of this blog is Copyright of Dr.Anil Chadah and any copying, reproduction,publishing etc. without the specific permission of Dr.Anil Chadah would be deemed to be violation of Copyright Act.

Friday, November 23, 2007

साथ चलो!

कौन बनेगा उनका अपना,
जो बस अपनी बाबत सोचें,
मैं तो खाली मैं ही होती,
हम में तो कितने मैं होते ।

साथ चलोगे दुनिया के,
तो दुनिया तेरे साथ चलेगी,
अकेले चलने वालों के संग,
दुनिया वाले कभी न होते ।

सोच है मेरी सबसे न्यारी,
ग़र सोचे ये दुनिया सारी,
तो जितने हैं रिश्ते-नाते,
तिनके-तिनके बिखरे होते ।

ग़र तुमको ऊपर उठना है,
नीचे भी तो देखो भाई,
चलना मुश्किल हो जाता,
ग़र धरती पे ये पाँव न होते ।

दर्द से दर्द मिला करता है,
खुशियाँ बाँटो खुशियाँ आयें,
फूल नहीं उगते हैं वहाँ पर,
जहाँ पे तुम हो काँटे बोते ।

Tuesday, November 20, 2007

अपनों को गैर तो न मानो!

प्यार को बंधन तो न मानो,
हँसी को रूदन तो न मानो,
कौन रहेगा वर्ना अपना,
सबको दुश्मन तो न मानो ।

दर्द तो सब के दिल में है,
रहना लेकिन दुनिया में है,
दर्द को बाँटना भी सीखो,
इसे केवल अपना तो न मानो ।

मुश्किलों के दायरे में खड़े हो,
तो शशोपंज में क्यों पड़े हो,
जिंदगी जिंदादिली से जियो,
जिंदगी से हार तो न मानो ।

कदम बढ़ाओ तो रास्ता तय होगा,
बात करो तो मामला तय होगा,
यूँ ही चुपचाप रह करके,
खुद को ही सही तो न मानो ।

खुद ही सवाल उठा करके,
खुद ही जवाब दे लेते हो,
अपने सवालो और जवाबों को,
अपनी दुनिया तो न मानो ।

पथिक और भी राहों में,
चल रहे अकेले हैं,
अकेले चलते रह करके,
सफर को तय तो न मानो ।

तुम्हारी दुनिया माना कि,
ज़ुदा है सारी दुनिया से,
पर रह करके अलग सबसे,
अपनों को ग़ैर तो न मानो ।

Sunday, November 18, 2007

ये कैसा संसार!

दो अलग-अलग
राहों पर
चलते राही
मिल कर
एक हो जाते हैं
और बन जाते हैं
एक राह के राही
बिना कोई पूर्व रिश्ते के
जब दो इंसा
एक बंधन में
बंध जाते हैं
तो कोई तो आधार
होगा ही
कहीं तो
प्यार होगा ही
पर
दूसरी और
एक राह पर
चलते राही
अलग-अलग राहों पर
चल निकलते हैं
और
जन्म ले साथ-साथ
बचपन-जवानी
काटे साथ-साथ
कभी-कभी
बन जाते हैं
इक-दूसरे के
खून के प्यासे
इसका कोई आधार है क्या?
कभी सोचा है क्या?
आधार तो
दोनों स्थतियों का है
एक का आधार
है प्यार
इक-दूसरे की
कमियों को
करना स्वीकार
और
जीवन तक
कर देना न्यौछावर
दूसरे का आधार
है दुराचार
अनाचार
और
ऐसा व्यवहार
जो दर्शाता हो
कुत्सित विचार
या फिर
जब रिश्तों का
लालच हो आधार
इंसा वही
रिश्ता वही
फिर भी
अलग-अलग
जब हो व्यवहार
तो
फिर सोचने को
मजबूर होना ही पड़ता है
कि
ये कैसा संसार !

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