एक नया वज़ूद रचें !
ग़र हम
किसी के नहीं
तो स्वयँ
अपने भी तो नहीं
किसी को
कुछ देने से
हम लेने का
अधिकार भी
स्वयँमेव ही
पा जाते हैं
इसीलिये तो
प्यार से
प्यार का बढ़ना
और
नफरत से
नफरत का बढ़ना
हो जाता है
अतएव
किसी का
न हो पाना
किसी को
प्यार न कर पाना
अपने वज़ूद को ही तो
नकारना है
तभी तो कहता हूँ
कि
ग़र मिटना ही है
तो क्यों न
किसी और के लिये मिटें
क्यों न
किसी और के बनें
और
अपने वज़ूद को
किसी और के
वज़ूद में
समाहित कर
एक नया
वज़ूद रचें !