"गज़ल"
मँझधार की आदत हो ही गई,
किनारों से अदावत हो ही गई ।
जब से दोस्त हुए दुश्मन,
दुश्मन संग दावत हो ही गई ।
थी लाख करी कोशिश हमने,
पर ग़म से चाहत हो ही गई ।
जब मिला दोगला सारा जहाँ,
दुनिया से बगावत हो ही गई ।
निकले तो थे गुल की खातिर,
ख़ारों से कुर्बत* हो ही गई ।
मुँह बेशक फेर के चल दें वो,
अँखियों से कयामत हो ही गई ।
न याद करूँ, न भूलूँ उन्हे,
यूँ दिल की हालत हो ही गई ।
शामो-सहर घर सूना मिले,
अब ऐसी किस्मत हो ही गई ।
राहें दिल की पथरीली हुईं,
ऐसी कुदरत ये हो ही गई ।
* नजदीकी
6 Comments:
bhut acchhi rachna
dil tak mahsus kar saki
gargi
waag behtarin
bahot khub likhaa hai aapne achhi gazal... badhaayee aapko...
arsh
बहुत बढिया रचना है।बधाई।
जब मिला दोगला सारा जहाँ,
दुनिया से बगावत हो ही गई ।
ग़ज़ल पूरी तरह भावों के जल से
सराबोर है।
क्या बात है भाई साहब!! आजकल एक से एक रचना उतर रही हैं. शुभकामनाऐं.
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