"गज़ल"
मँझधार की आदत हो ही गई,
किनारों से अदावत हो ही गई ।
जब से दोस्त हुए दुश्मन,
दुश्मन संग दावत हो ही गई ।
थी लाख करी कोशिश हमने,
पर ग़म से चाहत हो ही गई ।
जब मिला दोगला सारा जहाँ,
दुनिया से बगावत हो ही गई ।
निकले तो थे गुल की खातिर,
ख़ारों से कुर्बत* हो ही गई ।
मुँह बेशक फेर के चल दें वो,
अँखियों से कयामत हो ही गई ।
न याद करूँ, न भूलूँ उन्हे,
यूँ दिल की हालत हो ही गई ।
शामो-सहर घर सूना मिले,
अब ऐसी किस्मत हो ही गई ।
राहें दिल की पथरीली हुईं,
ऐसी कुदरत ये हो ही गई ।
* नजदीकी