“वो फिर भी बाजी मार गया”
सूरज से आग निकलती रही, धरती बेजान सी तपती रही,
प्रकृति भी ग़म में शनै: शनै:, अंदर ही अंदर ही जलती रही ।
सारी व्यवस्था तोड़ी है, फूलों ने खुशबू छोड़ी है,
इंसा की फितरत भी जब-तब, गिरगिट की तरह बदलती रही ।
सब के सब चेहरे काले हैं, सब रंग बदलने वाले हैं,
याद शहीदों को करके, धरा थी गुमसुम रोती रही ।
अफरा-तफरी है चारों ओर, घर भरने को सब बने चोर,
धर्म के ठेकेदारों की, चोरों के संग ही जमती रही ।
‘अनिल’ लड़-लड़ के हार गया, ‘वो’ फिर भी बाजी मार गया,
नित आशा मेरी बार-बार, तिल-तिल करके मरती रही ।
1 Comments:
Dr. Saheb ! achhi kavita hai ! Badhai !!!!
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